Saturday, April 13, 2019

संस्कृत व्याकरण नोट्स

           
                        ओउम्
(नमस्कार दोस्तों मैं आचार्य सुरेन्द्र शास्त्री आपके संस्कृत की प्रत्येक परीक्षा के लिए व्याकरण नोट्स के अध्याय व्याकरण परिचय के नोट्स . आसान और सरल शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूं आशा है कि आप इन्हें अच्छी तरह समझ पायेंगें)                              
                    (अध्याय-2- व्याकरण-परिचय)
                                 
                        संस्कृत व्याकरण नोट्स

               
                                 संज्ञा प्रकरण
                माहेश्वर सूत्र
१. अइउण्       २. ऋलृक्          ३.एओड॒;
४.ऐऔच्         ५.हयवरट्          ६. लण्
७.ञमड;णनम्  ८.झभञ्          ९. घढधष्
१०.जबगडदश्  ११. खफछठथचटतव्
१२. कपय्     १३.शषसर्    १४. हल्


∆-जनश्रुति है कि पाणिनी की निरंतर शिव आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने डमरू बजाया था इसी से यह 14 माहेश्वर सूत्र निकले अतः इनको शिवसूत्रजाल भी कहा जाता है।
∆- चूंकि इन माहेश्वर सूत्र में सभी अक्षरों का उल्लेख किया गया है अतः माहेश्वर सूत्रों को अक्षरसमाम्नाय या वर्णसमाम्नाय भी कहा जाता है समाम्नाय से तात्पर्य वेद से है ।अतः इन्हें अक्षरवेद या वर्ण वेद भी कहा जाता है।
∆- प्रत्याहारों का निर्माण माहेश्वर सूत्रों से ही होने के कारण इन्हें प्रत्याहार सूत्र भी कहा जाता है।
∆ ∆-- इनमें प्रारंभ के 4 सूत्र स्वर विधायक (अच्सम्बन्धी) तथा अंतिम 10 सूत्र व्यञ्जन  विधायक (हल्सम्बन्धी) हैं।
∆- माहेश्वर सूत्रों के अंतिम वर्ण की इत्संज्ञा "एषामन्त्याः इतः(हलन्त्यम्) । जैसे- अइउण् में ण् , ऋलृक् में क् की आदि।
∆-लण् सूत्र (6) के लकार में विद्यमान अकार की भी इत्संज्ञा होती है ।
∆-माहेश्वर सूत्रों में हवर्ण का दो बार उपदेश किया गया है।(हयवरट् एवं हल् सूत्र में)
∆- माहेश्वर सूत्रों में इत्संज्ञक वर्ण ण् का दो बार पाठ किया गया है।
वर्णमाला (माहेश्वर सूत्रों के अनुसार)
∆- स्वर (अच्) = 9 { अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ }
                          अ, इ, उ, ऋ, लृ - मूल स्वर।
                           ए, ओ, ऐ, औ - संयुक्त स्वर
∆- व्यञ्जन (हल्)=33
                             स्पर्श वर्ण -25 (इन्हें उदित वर्ण भी कहा जाता है । (क से म तक).
                           ऊष्म वर्ण - 4 (श् , ष्, स्, ह् ।)
                           अन्तस्थ वर्ण- 4(य्,व्, र्,ल् ।)
∆- संयुक्त वर्ण- क्ष् -क्+ष्
                     त्र्- त्+र्
                     ज्ञ- ज्+ञ् [इनकी गणना वर्णमाला में नहीं होती ।]
√ पाणिनीय  शिक्षा के अनुसार कुल वर्ण 63 या 64 माने गए हैं।(त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः)
इसमें कुल 21/22 स्वर व 42 शेष वर्ण माने गये हैं।
स्वर (21/22)-अ,इ,उ,ऋ (ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत- 4×3=12)
                   लृ (केवल प्लुत) या ह्रस्व और प्लुत(1 या 2)
                    ए,ओ,ऐ,औ(केवल दीर्घ और प्लुत-4×2=8)
शेष वर्ण (42)-
                25 स्पर्श वर्ण (कु,चु,टु,तु,पु/उदित वर्ण)
                4 ऊष्म वर्ण(श्,ष्,स्,ह्)
                4अन्तस्थ वर्ण(य्,व्,र्,ल्)
                4 यम( वर्ग के प्रारंभिक चार वर्णों में से किसी भी एक के आगे किसी भी वर्ग के पंचम (ड; ,ञ,ण,न,म) वर्ण के रहने पर पहले के जैसे   द्वितीय वर्ण को यम कहा जाता है)
जैसे-पलिक्क्नी में द्वितीय क् यम है।
       अग्ग्नि में द्वितीय ग् यम है।
               1 अनुस्वार
               1 विसर्ग
               1 जिह्वमूलीय( क और ख से पहले विद्यमान अर्ध  विसर्ग  जिह्वमूलीय होता है । )( क , )(ख ।
               1 उपध्मानीय( प और फ से पहले विद्यमान अर्ध विसर्ग उपध्मानीय होता है। )(प , )(फ  ।
              1 दुःस्पृष्ट
                      कुल = 42
            प्रत्याहार निर्माण
"या या संज्ञा, सा सा फलवती " नियम के अनुसार प्रत्येक संज्ञा का प्रयोजन होता है माहेश्वर सूत्र में अंतिम वर्ण की इत्संज्ञा हुई है, जिसका प्रयोजन प्रत्याहारओं का निर्माण है वस्तुतः प्रत्याहार वर्णों के समूह को संक्षिप्त करने की एक प्रक्रिया है।
प्रत्याहार  संज्ञा विधायक सूत्र "आदिरन्त्येन संहेता" है प्रत्याहार निर्माण में आदि (प्रारम्भिक)  वर्ण से प्रारंभ होकर अन्तिम इत्संज्ञक  वर्ण पर्यंत वर्णों का ग्रहण किया जाता है। लेकिन इत्संज्ञक वर्णों का यंहा ग्रहण नहीं किया जाता है। जैसे- अक् प्रत्याहार के निर्माण में अ से प्रारम्भ करके "ऋलृक्" सूत्र के ककारपर्यन्त वर्णों का ग्रहण किया जाता है।लेकिन इत्संज्ञक ' ण् 'तथा ' क् ' का नहीं। इस प्रकार अक् प्रत्याहार में अ,इ,उ,ऋ,लृ इन पांच वर्णों का ग्रहण होता है।
∆- सामान्यतः अष्टाध्याई में 41 प्रत्याहारओं का प्रयोग किया जाता है।"उरण रपरः"  सूत्र में ' र ' को प्रत्याहार मानकर 42 प्रत्याहारओं का प्रयोग अष्टाध्यायी में किया गया है । लेकिन इन प्रत्याहारओं के अलावा वार्तिकों में चय् प्रत्याहार तथा उणादि सूत्रों में ञम् प्रत्याहार मानकर प्रत्याहारओं की कुल संख्या 44 गिनी जा सकती है।
∆- माहेश्वर सूत्रों ण् की इत्संज्ञा दो जगह होती है। अर्थात् ण् का पाठ् दो स्थानों पर है-   (१) अइउण् तथा (२)लण् सूत्र में।
∆ यहां प्रत्याहार निर्माण प्रक्रिया में अण्  और इण्  प्रत्याहारों   के बनाने में संशय उत्पन्न होता है कि किस वर्ण पर्यंत वर्णों का ग्रहण किया जावे?
∆यहां यह ध्यातव्य है कि इण् प्रत्याहार में णकार ' लण् ' सूत्र पर्यन्त माना गया है।
∆-अण् प्रत्याहार में "अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्यः"सूत्र के प्रसंग में ' लण् ' सूत्र पर्यन्त तथा अन्य सूत्रों के प्रसंग में 'अइउण्' के णकार पर्यन्त ही ग्रहण होगा। इसीलिए प्रत्याहारों के पाठ में अण् प्रत्याहार का दो बार पाठ किया गया है।
∆ सर्वाधिक 6-6 प्रत्याहार श् और ल् इत्संज्ञक वर्णों से बनाए गये हैं।
∆-लण् सूत्र में अकार की इत्संज्ञा करने का प्रयोजन र् प्रत्याहार है । र् प्रत्याहार में र् और ल् वर्णों का ग्रहण होता है।

                         उच्चारण स्थान
∆-उच्चारण स्थान- प्रत्येक वर्ण  जहां से उत्पन्न होता है उसेे उसका उच्चारण स्थान कहा जाता है अर्थात वर्ण के उत्पत्ति स्थल या प्रथम प्रकाशन स्थल को उनका उच्चारण स्थान कहा जाता है सामान्यतः कुल सात उच्चारण स्थान माने गये पाणिनीय शिक्षा में उरस् को भी सभी वर्णों का सामान्य उच्चारण स्थान माना गया है । कुछ वर्ण दो उच्चारण स्थानों की सहायता से उत्पन्न होते हैं। सवर्ण संज्ञा में इन सात उच्चारण स्थानों का ही प्रयोग होता हौ-
√ ये सात उच्चारण स्थान निम्न हैं-
(१) कण्ठ        (२)तालु    (३)मूर्धा    (४)दन्त
(५)ओष्ठ|        (६)नासिक (७) जिह्वामूल
                उच्चारण - स्थान
1.कण्ठ - अ-कु-ह-विसर्जनायानां कण्ठः अ+कवर्ग+ह्+विसर्ग।
2.तालु- इ-चु-य-शानां तालु इ+चवर्ग+य्+श् ।
3.मूर्धा - ऋ-टु-र-षाणां मूर्धा ऋ+टवर्ग+र्+ष् ।
4.दन्त - लृ-तु-ल-सानां दन्ताः लृ+तवर्ग+ल्+स् ।
5.ओष्ठ- उ-पू-पध्मानीयानामोष्ठौ उ+पवर्ग+उपध्मानीय
6.नासिका- ञमड;णनानां नासिका च  ञ्+म्+ड्+ण्+न्
7.कण्ठतालु - एदैतोःकण्ठतालु        ए+ऐ
8.कण्ठोष्ठ - ओदौतोःकण्ठोष्ठम्        ओ+औ
9.दन्तोष्ठ - वकारस्य दन्तोष्ठम्          व्
10.जिह्वामूल - जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्       )(क , )(ख (जिह्वामूलीय)
11.नासिका - नासिकाअनुस्वारस्य|    अनुस्वार   
∆- 'ञ म ड ण न ' का अपने वर्ग के अनुसार उच्चारण स्थान तो है ही ' साथ में नासिका भी उनका उनका उच्चारण स्थान है ।अतः इस तरह दस वर्णों के दो-दो उच्चारण स्थान हैं।
∆- ड; - कण्ठ+ नासिका  ,      ञ - तालु+नासिका
    ण - मर्धा+नासिका   ,        न - दन्त+नासिका
   म - ओष्ठ+नासिका   ,         ए - कण्ठ ,तालु
   ऐ- कण्ठ ,तालु       ,         ओ - कण्ठ , ओष्ठ
  औ - कण्ठ , ओष्ठ    ,          व - दन्त ,ओष्ठ
∆- विसर्ग एवं अर्ध विसर्ग जिस स्वर पर  आश्रित होता है उसके अनुसार उसका उच्चारण स्थान परिवर्तित हो जाता है।
∆ यम वर्णों का उच्चारण स्थान नासिका ही माना जाता है।
∆ एक उच्चारण स्थान वाले -32 वर्ण तथा विसर्ग,उपध्मानीय,जिह्वामूलीय व अनुस्वार।   दो उच्चारण स्थान वाले 10 वर्ण ।
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Monday, April 8, 2019

संस्कृत व्याकरण नोट्स

                                 ओउम्
(नमस्कार दोस्तों मैं आचार्य सुरेन्द्र शास्त्री आपके संस्कृत की प्रत्येक परीक्षा के लिए व्याकरण नोट्स के अध्याय व्याकरण परिचय के नोट्स आसान और सरल शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूं आशा है कि आप इन्हें अच्छी तरह समझ पायेंगें)                       (अध्याय-1_व्याकरण-परिचय)
                        संस्कृत व्याकरण नोट्स
                      ( आसान और सरल शब्दों में)
                   संज्ञा प्रकरण
वेद के 6 अंगों में मुख स्वरूप सुशोभित सर्वश्रेष्ठ वेदागं व्याकरण ही है किसी भी भाषा का परिचय प्राप्त करने से पूर्व उसका व्याकरण अवश्य ज्ञातव्य है। व्याकरण वह शास्त्र है जिसमें प्रकृति प्रत्यय के विभाग के द्वारा साधु शब्दों का विवेचन किया जाता है। महाभाष्य में व्याकरण को शब्दानुशासन कहा गया है।
वेद के छह अंग निम्न हैं 
१.शिक्षा(शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य)
२.कल्प(हस्तौ कल्पोथपठ्यते)
३.व्याकरण(मुखं व्याकरणं स्मृतम्)
४.निरुक्त(निरुक्तं श्रोतमुच्यते)
५.छन्द(छन्दः पादौ तु वेदस्य)
६.ज्योतिष(ज्योतिषामयनं चक्षुः)
√ ध्वन्यालोक में आनंद वर्धन भी व्याकरण को जानने वालों की श्रेष्ठता संपादित करते हैं-" प्रथमे हि विद्वान्सो वैयाकरणाः , व्याकरण मूलतत्वात् सर्वविद्यानाम्"
 व्याकरण की परम्परा-
व्याकरण की परंपरा द्विमुखि या दो प्रकार की है - १.बार्हस्पति परंपरा और २. माहेश्वरी परंपरा।
√व्याकरण की बार्हस्पति परंपरा में कहा जाता है कि ब्रह्मा ने संपूर्ण व्याकरण शास्त्र का निर्माण करके बृहस्पति को बताया बृहस्पति ने इंद्र को तथा इंद्र ने यम,रुद्र, वायु, वरुण आदि को बताया अतः इस मत में इंद्र को प्रथम वैयाकरण माना जाता है तथा प्रथम प्रवक्ता वृहस्पति को माना जाता है।
इस बार्हस्पति परंपरा को कातंत्र नाम भी दिया जाता है क्योंकि यहां पर काठिन्य था।
√ माहेश्वरी परंपरा के अनुसार भगवान महेश्वर ही प्रथम वैयाकरण हुए हैं। कहा गया है कि माहेश्वर सूत्रों के माध्यम से पाणिनि को व्याकरण का ज्ञान हुआ अतः  इस परंपरा को पाणिनीय  परंपरा भी कहा जाता है। इस परंपरा को वर्तमान में अधिक तार्किक, मनोवैज्ञानिक एवं सर्वग्राह्य माना जाता है।
व्याकरण के त्रिमुनि-
पाणिनि कात्यायन (वररुचि)और पतंजलि को व्याकरण के त्रिमुनि कहा जाता है पाणिनि की कृति अष्टाध्यायी  कात्यायन के वार्तिक तथा पतंजलि के महाभाष्य को 'तदुक्ति' पद से सुशोभित किया गया है।
        त्रिमुनि                                तदुक्ति
  १.  पाणिनि                           १.अष्टाध्यायी
२.कात्यायन(वररुचि)                २.वार्तिक
३.पतञ्जलि                            ३.महाभाष्य
√इस त्रिमुनि में पाणिनि की अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरण की आधारस्तम्भ कृति है। पाणिनीय सूत्रों से बचे हुए विषय तथा कठिनता से कहे गये विषय का सरल उपस्थापन, कात्यायन(वररुचि )ने वार्तिकों के रुप में किया है अष्टाध्यायी और वार्तिकों पर विचार करके पाणिनीय सूत्रों की ही पुनः प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए पतंजलि ने महाभाष्य लिखा ।
इस त्रिमुनि परंपरा में पतंजलि के मत को श्रेष्ठ माना गया है ।क्योंकि इसमें पुनः पाणिनि के मत को ही प्रामाणिक माना है ।पुनश्च , जो मुनि बाद में विषय का उपस्थापन करता है उसका मत प्रामाणिक माना जाता है कहा गया है कि "यथोत्तरं मुनिना प्रामाण्यम् ।
पाणिनि- (समय 500 ईसा पूर्व )जन्म- शालातुर, अध्ययन- तक्षशिला,
माता- दाक्षी           
पिता- पणिन्     
√-तदुक्ति- अष्टाध्यायी, ----दूसरा नाम शब्दानुशासनम्  आठ अध्याय, प्रत्येक अध्याय में चार पाद अतः कुल 32 पाद।
प्रथम सूत्र- वृद्धिरादैच्
अन्तिम सूत्र- अ अ ।
14 माहेश्वर सूत्र, लगभग-3978 सूत्र।
∆कात्यायन(वररुचि)-(समय 350 ईसा पूर्व )
√- तदुक्ति- वार्तिकम्(लगभग-1500सूत्रों पर 4000 से 5000 वार्तिक लिखी।
∆पतञ्जलि- (समय 200 ईसा पूर्व)
√- तदुक्ति- महभाष्यम्- कुल - 84/85आह्निक।(एक दिन में निवृत कार्य को आह्निक कहा जाता है अतः महाभाष्य को 84/85 दिनों में निर्मित ग्रंथ माना जाता है।
इस पर कैयट ने प्रदीप टीका, नागेश ने उद्योत टीका लिखी।
      अन्य व्याकरण ग्रन्थ

नारायण भट्ट - प्रक्रियासर्वस्वम्
विमल सूरी -रुपमाला
भट्टोजिदीक्षित - वैयाकरणसिद्धान्त कौमुदी
वरदराज - मध्यसिद्धान्तकौमुदी, लघुसिद्धान्तकौमुदी।
          व्याख्या ग्रन्थ
भट्टोजिदीक्षित - प्रोढमनोरमा
कौण्डभट्ट - वैयाकरणभूषणसार
नागेशभट्ट - लघुशब्देन्दुशेखरः , परिभाषेन्दुशेखरः ।
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